"देवी शक्ति और चेतना"
देवी: केवल शक्ति नहीं, ब्रह्मांडीय चेतना का साकार रूप
हमारी मान्यताओं के अनुसार देवी को शक्ति का एक आदि प्रतीक माना जाता है। क्या यह वही शक्ति है जो हमारी सृष्टि को जन्म देती है और उसका पालन-पोषण भी करती है, और जब समय आता है तो उसका संहार भी करती है? पर एक प्रश्न मन में बार-बार उठता है – क्या देवी केवल शक्ति हैं या ब्रह्मांड को चलाने वाली एक चेतना भी हैं, जो हर शक्ति को दिशा और उद्देश्य प्रदान करती है?
यदि शक्ति एक गति है तो चेतना उसकी दिशा है। यदि शक्ति एक धारा है तो चेतना उसका स्रोत है। और वैसे भी, बिना चेतना के शक्ति अधूरी है और बिना शक्ति के चेतना अधूरी है।
हमारे शास्त्र कहते हैं –
“शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं,
न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि।”
अर्थात् शिव शक्ति के बिना अधूरे कहे जाते हैं। कहा जाता है कि शक्ति के बिना वह कुछ नहीं कर सकते। यही बात सत्य है, जिसे देवी का स्वरूप संपूर्ण करता है।
देवी की शक्ति
वह ज्वाला है, जो अंधकार जलाए,
वह शक्ति है, जो ब्रह्मांड रचाए।
वह आँधी है, पर्वत हिला दे,
वह शांति है, जो मन को सुला दे।
उससे ही सूरज को रोशनी मिलती,
उससे ही नदियों को गति मिलती।
वह जन्म देती, वह संहार करे,
वह सृजन की धारा, विनाश भी भरे।
वह साहस है, जो डर को हराए,
वह संकल्प है, जो मंज़िल दिलाए।
देवी की शक्ति—न सीमित, न बंधन,
वह अनंत है, वही जीवन का स्पंदन।
चेतना क्या है
वैज्ञानिकों का मानना है कि चेतना मस्तिष्क का उभरता हुआ गुण है या उद्भव गुण (emergent property)। यह हमारी इंद्रियों से प्राप्त जानकारी को एकत्रित करके हमें अपने आसपास और अपने बारे में जागरूक बनाती है। लेकिन यह परिभाषा सतही परिभाषा है। दृष्टि कहती है—चेतना एक तत्व है जो अनुभव करता है केवल।
देवी की चेतना
वह शक्ति भी है, वह शांति भी,
वह गति भी है, वह गहराई भी।
लहरों-सी बहती, पर सागर-सी स्थिर,
वह जीवन का संगीत है, अनाहत नाद की लहर।
शिव में समाई, पर शिव से परे,
वह चेतना है, जो सबमें बसे।
अंधी है शक्ति, जब बोध नहीं,
और बोध भी व्यर्थ, जब गति नहीं।
देवी वही है, जहाँ दोनों मिलते,
जहाँ शक्ति को ज्ञान के दीप मिलते।
वह बाहरी मूर्ति नहीं, भीतरी प्रकाश है,
जो हर मन में जागे, वही असली विश्वास है।
देवी और चेतना का संबंध
शास्त्रों में शिव और शक्ति को एक-दूसरे से अलग नहीं बताया गया है। शिव शुद्ध चेतना हैं, जो स्थिर, निर्विकार और अपरिवर्तनीय है। उस चेतना की गति—सृजन की अनंत ऊर्जा—शक्ति है। ब्रह्मांड का जन्म चेतना और शक्ति के एकीकरण से होता है। यही कारण है कि देवी केवल ऊर्जा नहीं हैं, बल्कि “चिद्रूपिणी” चेतना का साकार रूप हैं।
चेतना की अवस्थाएँ और देवी का आयाम
योग और वेदांत चेतना की चार अवस्थाएँ बताते हैं:
- जागृत (जागरण) बाहर की दुनिया को इंद्रियों से अनुभव करने की अवस्था। मन-शरीर दोनों सक्रिय रहते हैं।
- स्वप्न (सपनों की अवस्था) शरीर सोता है पर मन अपनी बनाई दुनिया में सक्रिय रहता है। सपने मन की गतिविधि हैं।
- सुषुप्ति (गहरी नींद) शरीर और मन दोनों शांत होते हैं। न सपने होते हैं, न विचार—केवल गहरा विश्राम।
- तुरीय (तुरीयता) यह जागरण, स्वप्न और नींद से परे शुद्ध चेतना की अवस्था है। इसमें गहरी शांति और जागरूकता रहती है।
देवी को महामाया और चिद्रूपिणी कहते हैं क्योंकि वे ज्ञान और शक्ति की अधिष्ठात्री हैं। वे सिर्फ बाहरी पूजा की मूर्ति नहीं हैं; वे जीवन को दिशा देने वाली शक्ति और जागरूकता हैं।
जाग्रत में दुर्गा की हुंकार,
स्वप्न में लक्ष्मी का साकार।
सुषुप्ति में काली का मौन,
तुरीय में पार्वती का ज्ञान।
जहाँ शक्ति और बोध मिल जाते,
वहीं देवी के द्वार खुल जाते।
देवी का मतलब सिर्फ शक्ति नहीं है। वे हर जीव में प्रकाश की तरह विद्यमान ब्रह्मांडीय चेतना हैं। जब हम देवी की पूजा करते हैं, तो वास्तव में हम अपने भीतर उस चेतना को जगाते हैं, जो शक्ति को सही दिशा देती है। साधना का मूल उद्देश्य है—आंतरिक जागृति के लिए बाहरी देवी की पूजा करना।
